राजस्थान का इतिहास सामान्य ज्ञान | Rajasthan History GK in Hindi

Juhi
0

राजस्थान का इतिहास सामान्य ज्ञान | Rajasthan History GK in Hindi

नमस्कार दोस्तों, Gyani Guru ब्लॉग में आपका स्वागत है। इस आर्टिकल में राजस्थान राज्य के इतिहास से संबंधित सामान्य ज्ञान (Rajasthan History GK) दिया गया है। इस आर्टिकल में राजस्थान के इतिहास से संबंधित जानकारी का समावेश है जो अक्सर परीक्षा में पूछे जाते है। यह लेख राजस्थान पुलिस, पटवारी, राजस्थान प्रशासनिक सेवा, बिजली विभाग इत्यादि प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए महत्वपूर्ण है।


राजस्थान gk, राजस्थान GK इन हिंदी, Rajasthan General Knowledge in Hindi, Rajasthan Samanya Gyan, राजस्थान सामान्य ज्ञान हिंदी, राजस्थान हिस्ट्री GK
राजस्थान का इतिहास सामान्य ज्ञान | Rajasthan History GK in Hindi

➤ राजस्थान की सभ्यता प्राचीन भारतीय सभ्यता के समकालीन है।

सिन्धु घाटी सभ्यता के अवशेष राजस्थान से प्राप्त हुए हैं।

कालीबंगा की सभ्यता हड़प्पा तथा मोहनजोदड़ो के समकक्ष तथा समकालीन थी।

कालीबंगा की सभ्यता दृष्द्वती तथा सरस्वती नदियों की घाटी में (श्रीगंगानगर के निकट) फैली थी।

कालीबंगा एक नगरीय सभ्यता थी। यहाँ पर उत्खनन में प्राप्त मकान, सड़कें, गोल कुएँ, दीवारें आदि बहुत अच्छी व विकसित सभ्यता के द्योतक हैं

आहड़ की सभ्यता अब से लगभग 3,500 वर्ष पूर्व उदयपुर के निकट आहड़ नदी घाटी में विद्यमान थी।

यहाँ के लोग कृषि से परिचित थे। सिंचाई नदियों एवं वर्षा के जल द्वारा होती थीं।

पुरातात्विक खुदाई में यहाँ पत्थरों के मकान, अन्न पीसने की चक्की, मिट्टी के बर्तन, ताँबे के औजारों के आभूषण इत्यादि प्राप्त हुए है।

आर्य सर्वप्रथम पूर्वी और दक्षिणी राजस्थान में आकर बसे। बाद में ये लोग गंगा व यमुना के मैदान की ओर चले गए।

महाभारत काल के तीर्थस्थल पुरस्कारारण्य तथा अर्वदाचल भी राजस्थान में स्थित थे।

1300 ई. पू. से 200 ई. पू. तक राजस्थान क्षेत्र में अनेक जनपद स्थापित हुए। यहाँ पर उस समय ब्राह्मण व बौद्ध संस्कृतियों का विकास हुआ।

सिकन्दर के भारत पर आक्रमण के समय पंजाब की मालव जाति ने यहाँ आकर जयपुर के निकट बागरछल को अपना केंद्र बनाया और बाद में अजमेर, टोंक, मेवाड़ आदि तक फैल गए।

पंजाब की ही शिवि जाति ने चित्तौड़ के निकट गिरि में अपना जनपद स्थापित किया।

अलवर में शाल्व जनपद, भरतपुर में राजन्य तथा मत्स्य जनपद स्थापित हुए।

उत्तरी राजस्थान में यौधेय जाति का राज्य स्थापित हुआ। इस जाति ने कुषाण शक्ति को नष्ट किया।

इतिहासकारों की मान्यता है कि वर्तमान राजस्थान का सम्पूर्ण क्षेत्र-चन्द्रगुप्त मौर्य के साम्राज्य में था।

मौर्यकाल में राजस्थान, सिन्धु, गुजरात और कोंकण को मिलाकर 'अपर जनपद' अथवा 'पश्चिम जनपद' कहलाते थे।

शुंग वंश के पुष्यमित्र ने पूर्वी मालवा तक अपना आधिपत्य जमाकर शुंग राज्य की स्थापना की।

यूनानी राज्यों व शुंग साम्राज्य के बीच राजस्थान में संघ राष्ट्र फिर उठ खड़े हुए।

शक संवत् के शुरू से कुछ से वर्षों तक यहाँ कुषाणों का भी राज्य रहा। उनके क्षत्रप के रूप में शक लोग भी राजस्थान में आये।

समुद्रगुप्त ने 351 ई. में आक्रमण कर दक्षिणी राजस्थान के जनपदों को अपने साम्राज्य में मिला लिया।

समुद्रगुप्त के पुत्र चन्द्रगुप्त 'विक्रमादित्य' ने राजस्थान के अधिकांश भागों को अपने साम्राज्य में मिला लिया।

प्रसिद्ध हूण राजा तोरमाण ने सन् 503 ई. में गुप्तों से राजस्थान छीन लिया।

7वीं सदी के शुरू से हूणों के बाद गुर्जरों का राज्य स्थापित हो गया। इनकी राजधानी भीनमाल (वर्तमान जालौर जिले में) थी।

हर्षवर्धन के पिता प्रभाकर वर्धन ने गुर्जरों का राज्य नष्ट किया।

प्रभाकर वर्धन पूर्वी राजस्थान के शासक महासेनगुप्त का भांजा था।

प्रभाकर वर्धन ने थानेश्वर से लेकर दक्षिणी तथा पश्चिमी

राजस्थान क्षेत्र पर अपना कब्ज़ा जमाया।

राजस्थान के अधिकांश हिस्से सहित व्यापक भारतीय भू-भाग पर हर्षवर्धन ने अपना साम्राज्य स्थापित किया।

राजपूतों का उदय 7वीं सदी में हुआ।

विदेशी इतिहासकारों ने राजपूतों को सीथियन, शक तथा हूण जाति की सन्तान माना है, जबकि भारतीय इतिहासकार इन्हें विशुद्ध क्षत्रिय मानते हैं।

21वीं सदी में चौहान राजपूतों ने उत्तरी राजस्थान में अपनी शक्ति बढ़ाते हुए पहले सांभर को जीता। पुनः आमेर और जालौर पर विजन प्राप्त की। इनकी राजधानी क्रमशः नागौर, साँभर तथा अजमेर रहीं। 12वीं सदी में उन्होंने दिल्ली को अपनी राजधानी बनाया।

चौहान राजपूतों का प्रथम शासक वासुदेव था।

अन्तिम चौहान राजा पृथ्वीराज तृतीय सन् 1117 ई. में वर्ष की अवस्था में गद्दी पर बैठा।

पृथ्वीराज चौहान ने पंजाब के भंडाणकों, महोबा, दक्षिण के चालुक्यों तथा गढ़वाल के राजाओं को हराया।

उसने कन्नौज नरेश जयचन्द को परास्त कर उसकी पुत्री संयोगिता से विवाह कर लिया।

पृथ्वीराज की सबसे महान् विजय सन् 1191 ई. में तराइन के प्रथम युद्ध में मुहम्मद गोरी के विरुद्ध हुई। इसमें मुहम्मद गोरी घायल होकर जान बचाकर भागा।


यह भी पढ़ें:-


राजस्थान के राजपूत वंश व केंद्र


राठौड़ वंश

जोधपुर, किशनगढ़ व बीकानेर

चौहान वंश

अजमेर, बूंदी, कोटा व सिरोही

गहलोत (गुहिल) वंश

शाहपुरा, प्रतापगढ़, बाँसवाड़ा, डूंगरपुर, बागड़ व मेवाड़

कछवाहा वंश

आमेर (जयपुर) व अलवर

यादव वंश

करौली, जैसलमेर व अलवर

झाला वंश

झालावाड़

जाट वंश

भरतपुर

भाटी वंश

जैसलमेर

पिण्डारी

टोंक

परमार वंश

दातारामगढ़, जालौर

चावड़ा वंश

आबू व भीनमाल

हाड़ा वंश

कोटा, बूंदी

मौर्य वंश

चित्तौड़गढ़

सिसोदिया वंश

उदयपुर

प्रतिहार

मारवाड़

देवड़ा

सिरोही


सन् 1192 ई. में तराइन के दूसरे युद्ध में पृथ्वीराज की मुहम्मद गोरी से हार हुई और पृथ्वीराज मारा गया। ल पृथ्वीराज की मृत्यु के साथ-साथ चौहान राजपूतों का साम्राज्य भी समाप्त हो गया। हूण राजा मिहिरकुल के बाद 7वीं सदी से राजपूतों का सर्वाधिक प्रमुख और प्रबल वंश 'गुहिल' या 'गहलोत' वंश था। इस वंश का दूसरा नाम 'सिसोदिया' वंश भी था।

इस वंश का संस्थापक शासक 'गुहिल' था। गहलोत पहले अन्य शासकों के सामन्त थे जो मालवा, बांगड़ एवं काठियावाड़ आदि स्थानों में फैले थे,

मेवाड़ में एकत्र होकर शक्तिशाली बन गए।

परन्तु बाद में गुहिल के उत्तराधिकारियों में बप्पा रावल का नाम उल्लेखनीय है। इसी ने आठवीं सदी में मेवाड़ राज्य की नींव डाली थी।

कुम्भा सन् 1433 ई. में मेवाड़ का शासक बना।

अब तक के मेवाड़ के शासकों में यह सबसे प्रभावशाली और गुणवान व्यक्ति था। वह संगीत, साहित्य और कला का भी पोषक था।

उसने महमूद खिलजी को हराकर मालवा पर विजय प्राप्त की। इस विजय के उपलक्ष्य में महाराणा कुम्भा ने सन् 1440 ई. में चित्तौड़ में विजय स्तम्भ का निर्माण कराया।

सन् 1509 ई. में राणा संग्राम सिंह (राणा सांगा) मेवाड़ का शासक बना।

सन् 1527 ई. में बाबर और राणा सांगा के मध्य खानवा के मैदान में युद्ध हुआ जिसमें राणा सांगा की पराजय हुई।

राणा सांगा के मेवाड़ का उत्तराधिकार उसके पुत्र उदयसिंह ने सम्भाला।

राणा उदयसिंह के बाद महाराणा प्रताप मेवाड़ के शासक बने। दिल्ली सम्राट अकबर से उनका अनवरत संघर्ष चलता रहा।

सन् 1576 ई. में हल्दीघाटी के मैदान में अकबर के सेनापति मानसिंह और राणा प्रताप के मध्य जबर्दस्त मुकाबला हुआ। अन्ततः मानसिंह को बिना जीत के वापिस लौटना पड़ा।

राणा प्रताप के मन्त्री भामाशाह ने अपनी निजी सम्पत्ति देकर राणा को पुनः सेना तैयार करने में सहायता दी।

इस सेना से उसने मेवाड़ की खोई हुई भूमि अकबर से प्राप्त की। फिर भी चित्तौड़ और माण्डलगढ़ उसके अधिकार में नहीं आ सके।

राणा प्रताप की मृत्यु के बाद उसका पुत्र अमर सिंह मेवाड़ का शासक बना।

सन् 1818 ई. में मेवाड़ के राजपूतों की सन्धि ईस्ट इण्डिया कम्पनी से हो गई।

राजस्थान के उत्तरी और पश्चिमी भागों में राठौड़ राजपूतों का राज्य स्थापित हुआ, जो मारवाड़ के नाम से प्रसिद्ध है। इसमें जोधपुर और बीकानेर के राज्य शामिल हैं।

राठौड़ों का प्रथम बड़ा शासक वीरमदेव का पुत्र राव चूड़ा था।

राव चूड़ा का उत्तराधिकारी राव रणमल था, जो मेवाड़ और मारवाड़ दोनों का स्वामी था।

रणमल के बाद उसका पुत्र राव जोधा मारवाड़ का शासक बना। इसने सन् 1459 ई. में जोधपुर नगर की स्थापना की।

राव जोधा के पाँचवें पुत्र राव बीका ने उत्तरी राजस्थान पर विजय प्राप्त कर सन् 1465 ई. में बीकानेर नगर की नींव डाली। सन् 1488 ई. में इस नगर का निर्माण कार्य पूर्ण हुआ।

मारवाड़ का एक महान शासक मालदेव हुआ। सन् 1544 ई. में मालदेव और शेरशाह के मध्य सामेल (जैतारण) का युद्ध हुआ, इसमें मालदेव पराजित हुआ। बाद में राठौड़ों की परस्पर फूट के कारण जोधपुर पर अकबर ने अपना अधिकार कर लिया।

कछवाहा राजपूत वंश के कोकिल देव ने सन् 1207 ई. में मीणों को परास्त कर आमेर पर कब्जा करके उसे अपनी राजधानी बनाया।

इसी वंश के शेखा ने अपना अलग राज्य शेखावटी के नाम से स्थापित कर राजपूतों के राजनैतिक प्रभाव को स्थापित किया।

कछवाहा वंश के शक्तिशाली शासकों में पंचवनदेव का नाम प्रसिद्ध है।

इसी वंश का पृथ्वीराज मेवाड़ के महाराणा सांगा का सामन्त था और उसने बाबर के विरुद्ध खानवा के युद्ध में सांगा का साथ दिया था।

पृथ्वीराज के भाई ने ही आमेर के निकट सांगानेर नगर बसाया था।

सन् 1547 ई. में कछवाहा राजपूत भारमल आमेर की गद्दी पर बैठा। इसने अपनी पुत्री का विवाह अकबर से करके मुगल सहायता प्राप्त की।

भारमल के पुत्र भगवान दास ने अपनी पुत्री का विवाह शहजादा सलीम के साथ किया।

भगवान दास का दत्तक पुत्र मानसिंह आमेर का अगला शासक था। वह अकबर की सेना में एक सेनापति था।

महाराणा प्रताप के विरुद्ध हल्दीघाटी के युद्ध में मुगल सेना का नेतृत्व मानसिंह ने ही किया था।

बाद में अकबर ने उसे बिहार व बंगाल का सूबेदार नियुक्त किया।

मिर्जा राजा जयसिंह भी आमेर का शासक था। उसने जहाँगीर, शाहजहाँ तथा औरंगजेब आदि मुगल सम्राटों की सेवा की।

उसने पुरन्दर पर घेरा डालकर शिवाजी को सन्धि करने तथा आगरा में औरंगजेब से मिलने के लिए बाध्य किया।

बीजापुर से लौटते समय औरंगजेब ने उसे जहर दिलाकर मरवा दिया।

मिर्जा राजा जयसिंह के बाद उसके उत्तराधिकारी रामसिंह, विशन सिंह और सवाई जयसिंह आमेर की राजगद्दी पर बैठे।

सवाई जयसिंह ने सन् 1727 ई. में जयपुर नगर की स्थापना की और 5 वेधशालाएँ स्थापित की।

गुर्जर या प्रतिहार राजपूतों ने 7वीं सदी से 12वीं सदी तक मण्डौर, भड़ौच व जालौर आदि में शासन किया।

परमार वंश ने भी 8वीं सदी से 13वीं सदी तक आबू, जालौर और बांगड़ आदि में अपने राज्य स्थापित किये।

चावड़ वंश के राजपूतों ने अपना राज्य भीनमाल में स्थापित किया।

यादव वंश के राजपूत भरतपुर, करौली, धौलपुर आदि में फैले थे जो बाद में अलवर जाकर बस गये।

हाड़ा राजपूतों ने हाड़ौती अथवा कोटा, बूंदी क्षेत्र में अपने राज्य कायम किये और 16वीं सदी से 18वीं सदी तक मुगलों के सामन्त बने रहे।

भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपने राजनीतिक प्रभाव विस्तार के प्रारम्भिक चरण में ही राजस्थान के रजवाड़ों को अपना अधीनस्थ बना लिया था।

ब्रिटिश काल में राजस्थान चार संभागों में विभक्त किया गया

1. जयपुर संभाग- जयपुर, अलवर, टोंक, शाहपुरा, किशनगढ़ और लावा चीफ-शिल्प।

2. राजपूताना स्टेट संभाग- जोधपुर, जैसलमेर, सिरोही,

बीकानेर, पालनपुर, दांता।

3. राजपूताना स्टेट्स संभाग- कोटा, बूँदी, झालावाड़

भरतपुर, करौली व धौलपुर।

4. मेवाड़ व दक्षिण राजपूताना संभाग- उदयपुर, डूंगरपुर, कुशलगढ़, प्रतापगढ़, बाँसवाड़ा, विजयनगर व चीफ शिल्प

डूंगर।

मेरठ (उत्तर प्रदेश) में सैनिक विद्रोह की खबर मिलते ही

नसीराबाद (अजमेर) की छावनी के सैनिकों ने 28 मई, 1857 को विद्रोह की घोषणा की तथा छावनी को लूटने व जलाने के बाद उन्होंने दिल्ली की ओर कूच किया।

एरिनपुरा स्थित जोधपुर लीजियन के सैनिकों ने भी 19 अगस्त, 1857 को विद्रोह की घोषणा की और माउण्ट आबू की अंग्रेज बस्ती पर धावा बोलते हुए दिल्ली की ओर कूच किया।

कोटा में विद्रोही सैनिकों ने 15 अक्टूबर, 1857 को रेजीडेन्ट मेजर बर्टन और उसके दो पुत्रों तथा चिकित्सक की हत्या कर दी।

30 मार्च, 1858 को ब्रिटिश सैनिकों ने जनरल रॉबर्ट्स के नेतृत्व में विद्रोही सैनिकों का दमन किया।

तात्या टोपे ने जून, 1858 में ग्वालियर के विद्रोहियों के साथ राजस्थान में प्रवेश किया। राजस्थान के लगभग चार हजार भील सहयोग के लिए उसके दल में शामिल हो गए।

टोंक के नवाब वजीर खाँ की सेना ने भी अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह करके ताँत्या टोपे का साथ दिया। लेकिन भीलवाड़ा के पास वह जनरल रॉबर्ट्स से पराजित हुआ।

तात्या टोपे बाँसवाड़ा और मेवाड़ होते हुए जयपुर की ओर बढ़ा, जहाँ शहजादा फिरोज उससे आ मिला।

मार्च में अंग्रेजों का घेरा तोड़ते हुए विद्रोही अलवर होते हुए सीकर पहुँचे लेकिन वहाँ कर्नल होम्स की सेना द्वारा पराजित होने के साथ ही सैनिक विद्रोह का पूर्ण दमन हो गया।

लॉर्ड कर्जन की बंग-भंग नीति के विरोध में राजस्थान में भी (1904-08) स्वदेशी आन्दोलन शुरू हुआ।

सिरोही में गोविन्द स्वामी ने 'सभ्य समा' स्थापित की जिसने राजस्थान के दक्षिणी क्षेत्र और पहाड़ी क्षेत्रों में जन-जागृति उत्पन्न की।

अजमेर के अर्जुन लाल सेठी ने सन् 1907 में जयपुर में एक "जैन वर्द्धमान विद्यालय स्थापित किया।

इस संस्था के छात्रों में देशभक्ति एवं बलिदान की भावना जागृत की जाती थी।

23 दिसम्बर, 1912 को दिल्ली में लॉर्ड हार्डिंग पर बम फेंकने की घटना में सेठी जी की महत्त्वपूर्ण भूमिका थी।

'विजय सिंह पथिक' के उपनाम से प्रसिद्ध भोप सिंह ने शस्त्र-संग्रह एवं क्रान्तिकारियों के लिए 'वीर भारत समाज' की स्थापना की।

बिजौलिया के जागीरदार के अत्याचारों के विरुद्ध साधु सीताराम दास के नेतृत्व में बिजौलिया किसान आन्दोलन शुरू हुआ।

सन् 1922-35 ई. के मध्य जो भील आन्दोलन शुरू हुआ, उसका नेतृत्व मुख्यतया मोतीलाल नेवामत, मामा बालेश्वर

दयाल, भोगीलाल पण्ड्या, बलवन्त सिंह मेहता तथा हरिदेव जोशी ने सम्भाला।

सन् 1921 ई. में अजमेर में विजय सिंह पथिक की अध्यक्षता में 'राजस्थान सेवा संघ' की स्थापना हुई।

सन् 1921 ई. में बेगू के किसानों ने ऊँची लगान दर के विरुद्ध, राम नारायण चौधरी के नेतृत्व में आन्दोलन किया।

जयपुर में हीरालाल शास्त्री और सेठ जमनालाल बजाज के नेतृत्व में उत्तरदायी सरकार की स्थापना के लिए प्रजामण्डल स्थापित किया गया।

जोधपुर में सन् 1929 ई. में जय नारायण व्यास के नेतृत्व में मारवाड़ हितकारिणी सभा, तथा सन् 1934 ई. में 'मारवाड़ प्रजामण्डल' एवं सन् 1938 ई. में 'मारवाड़ लोक परिषद' स्थापित हुई।

माणिक्य लाल वर्मा ने सन् 1938 ई. में 'मेवाड़ प्रजामण्डल' की स्थापना की।


राज्य के ऐतिहासिक व्यक्ति


राजा विराट -इसी राजा विराट के गोधन को सुशर्मा ने चुरा लिया था। पाण्डव अर्जुन ने इन गायों को वापस लाकर दिया तथा पाण्डवों ने अपने अज्ञातवास का समय यहीं गुजारा था।


बप्पा रावल- बप्पा ने मेवाड़ के शासन की स्थापना चित्तौड़ में सन् 728 में की थी। यह गुहिल वंश के प्रथम शासक थे।


महाराणा लाखा- इनका पूरा नाम लक्षसिंह (1382-97) था। इन्होंने वृद्धावस्था में मारवाड़ की राजकुमारी से शादी की, इनसे मोकल पैदा जो बाद में मेवाड़ के शासक बने।


यह भी पढ़ें:-


महाराणा कुम्मा-महाराणा कुम्भा राणा लाखा के पौत्र तथा मोकल व सौभाग्य देवी के पुत्र थे। यह मेवाड़ के महान् योद्धा व शासक थे। इनका जन्म 1403 ई. में तथा राज्यारोहण 1433 ई. में हुआ। महाराणा कुम्भा युद्ध व शांति दोनों में ही महान शासक सिद्ध हुए। कुम्मा ने अचलगढ़, कुम्भलगढ़, सास-बहू का मंदिर व सूर्य मंदिर का निर्माण कराया। कुम्भा ने 'गीत गोविन्द', 'संगीत मीसांसा', 'संगीत राग' आदि ग्रंथ लिखे। मालवा की विजय के उपलक्ष्य में कुम्भा ने 'कीर्ति स्तंभ' का निर्माण कराया। कुम्भा की हत्या उन्हीं के पुत्र राव ऊदा के द्वारा 1469 ई. में की गई।


महाराणा संग्राम सिंह–इन्हें इतिहास में राणा सांगा के नाम से जाना जाता है। ये राणा रायमल के पुत्र व कुम्भा के पौत्र थे। 1509 में सांगा का राज्यारोहण हुआ। महाराणा संग्राम सिंह अत्यधिक वीर व साहसी थे। इनके शरीर पर 80 घाव थे। सांगा ने 1519 में मालवा के सुल्तान महमूद खिलजी व 1526 में दिल्ली के सुल्तान इब्राहीम लोदी को बुरी तरह परास्त किया, लेकिन 1527 में खानवा के युद्ध में बाबर के विरुद्ध पराजय झेलनी पड़ी। 1528 में सांगा का निधन हो गया।


राणा उदयसिंह-ये राणा सांगा के पुत्र थे और इनकी रक्षा के लिए ही पन्ना धाय ने अपने पुत्र का बलिदान दिया था। उदयसिंह लगातार मुगलों के आक्रमण से परेशान होकर किले का भार जयमाल व पत्ता को सौंपकर 1567 में पहाड़ियों में चले गए। 1572 में इनकी मृत्यु हो गई।


महाराणा प्रताप-ये राणा उदयसिंह के पुत्र व राणा सांगा के पौत्र थे। इनकी माता का नाम जैवन्ता बाई था। इनको 'मेवाड़ कीका', 'मेवाड़ केसरी' कहा जाता है। अकबर ने इनके पास एक के बाद करके चार शिष्टमण्डल भेजे, लेकिन इन्होंने अधीनता स्वीकार नहीं की। 1576 में हल्दीघाटी के युद्ध में इन्होंने बड़ी वीरतापूर्वक युद्ध किया, लेकिन अन्त में इन्हें युद्ध भूमि से हटना पड़ा। इन्होंने जीवन भर मुगलों से संघर्ष किया। 1597 में ये परलोकगमन कर गए।


भामाशाह-महाराणा प्रताप के मंत्री थे, इन्होंने अपनी निजी सम्पत्ति से महाराणा की सहायता की। इस कृत के कारण इनको 'मेवाड़ का उद्धारक तथा दानवीर' कहा जाता है।


अमरसिंह- यह महाराणा प्रताप के पुत्र थे। इन्होंने मेवाड़ को स्वतंत्र रखने का पूरा प्रयास किया, लेकिन परिस्थितियों को मध्य नजर रखते हुए इन्होंने अपने मंत्रियों की सलाहानुसार मुगलों (खुर्रम) से मेवाड़-मुगल संधि 1615 ई. में की।


पृथ्वीराज चौहान- पृथ्वीराज चौहान के दादा अर्णोराज व सोमेश्वर पिता तथा माता का नाम कर्पूरी देवी था। इनकी ननिहाल दिल्ली के तोमरों के वहाँ थी। यह बड़े वीर व साहसी योद्धा थे। संयोगिता के अपहरण के कारण कन्नौज का शासक जयचंद इनका कट्टर शत्रु था। 1191 में तराइन के प्रथम युद्ध में इन्होंने मुहम्मद गौरी को बुरी तरह पराजित किया, लेकिन 1192 में तराइन के द्वितीय युद्ध में जयचंद के विश्वासघात के कारण यह पराजित हो गए तथा मातृभूमि पर अपना जीवन न्यौछावर कर गए।


राना चूडा- चूडा राणा लाखा के पुत्र थे। वृद्ध महाराणा लाखा ने मारवाड़ की राजकुमारी हंसाबाई से विवाह किया और चूंडा ने प्रतिज्ञा की कि हंसाबाई से उत्पन्न पुत्र ही राजा बनेगा। चूंडा ने मेवाड़ के राज्य पर कभी अपना अधिकार नहीं जताया। राणा लाखा की मृत्यु के बाद हंसाबाई से उत्पन्न मोकल ही मेवाड़ के राजा बने। इन्हें 'राजस्थान का भीष्म' कहा जाता है।

गोरा बादल-ये दोनों रानी पद्मनी के रिश्तेदार थे। इन्होंने ही अलाउद्दीन के चंगुल से राणा रतन सिंह को छुड़ाया था।


पद्मनी- यह मेवाड़ के राणा रतन सिंह की अति सुंदर पत्नी थी। अलाउद्दीन खिलजी ने इसे प्राप्त करने के लिए चित्तौड़ पर आक्रमण किया था राजपूतों ने वीरतापूर्वक लड़ते हुए चित्तौड़ की रक्षा के लिए युद्ध करते हुए वीरगति प्राप्त करते रहे। रानी ने अपने सम्मान की रक्षा के लिए जौहर किया।


हाड़ी रानी- यह राणा राजसिंह के सरदार रतन सिंह चूड़ावत की नई-नवेली दुल्हन थी। चूड़ावत इस पर बड़े आसक्त थे। इसी बीच इन्हें युद्ध क्षेत्र जाना पड़ा, तो इन्होंने सेनापति को भेजकर रानी से कोई याददाश्त वस्तु मैंगवाई। इस पर रानी ने अपना सिर काटकर सेनापति को दे दिया।


महाराणा जसवंत सिंह-  जसवंत सिंह महाराजा गजसिंह की मृत्यु के बाद 1638 में मारवाड़ के शासक बने। ये शहजहाँ के प्रति सदैव वफादार रहे। इन्होंने दारा की ओर से धरमत का युद्ध (1657) भी औरंगजेब और दारा के विरुद्ध लड़ा था।


महाराजा अजीत सिंह- 1678 में महाराणा जसवंत सिंह की मृत्यु के बाद मारवाड़ के राजा बने। दुर्गादास ने इनको राजा बनवाने के लिए मुगलों से युद्ध किया और इनकी रक्षा की थी, लेकिन अंत में कुछ सरदारों के बहकावे में आकर इन्होंने दुर्गादास को राज्य से निकलवा दिया था।


राठौड़ मालदेव- 1532 में अपने पिता राव गंगा की मृत्यु के बाद मारवाड़ के शासक बने। यह बड़े वीर सेनानी थे। अपने राज्य की सीमाएँ बढ़ाईं तथा मुस्लिम आक्रांताओं (शेरशाह व हुमायूँ) से अपने राज्य की रक्षा की।


अमरसिंह राठौड़- ये जोधपुर नरेश जसवंत सिंह के अनुज थे जो अपनी वीरता के लिए प्रसिद्ध हैं। एक बार बादशाह के सिपहसालार सलावत खाँ ने इनका अपमान कर दिया था। जिस पर उन्होंने भरी सभा में उसका सिर काट दिया था।


पृथ्वीसिंह -ये महाराजा जसवंत सिंह के पुत्र थे, जिन्होंने निहत्थे होकर चीते को मार दिया था। इनकी बहादुरी देखकर बादशाह ने इन्हें विषैले कपड़े पहना दिए जिनसे इनकी मृत्यु हो गई।


राव जोधाजी- 1459 में इन्होंने जोधपुर राज्य की नींव डाली तथा मण्डौर को अपनी राजधानी बनाया। इन्होंने मेहरानगढ़ दुर्ग का निर्माण करवाया।


पन्ना धाय -राणा सांगा के पुत्र उदयसिंह को मारकर दासीपुत्र बनवीर ने मेवाड़ का राज्य अपने अधिकार में करना चाहा, तो पन्नाधाय ने अपने पुत्र का बलिदान देकर भी उदयसिंह की रक्षा की।इनकी स्वामीभक्ति इतिहास में प्रसिद्ध है।


राव चूड़ा -ये राठौड़ के प्रथम शासक थे जिसने नागौर व मण्डौर आदि को जीतकर मारवाड़ का विस्तार किया। जैसलमेर के भाटियों ने इन्हें धोखे से मार दिया।


हम्मीर -ये रणथम्भीर के चौहान शासक थे। इन्होंने अपने जीवनकाल में सत्रह युद्धों में से सोलह युद्धों में विजय श्री प्राप्त की।

1301 में अलाउद्दीन के सामने इन्हें हार का सामना करना पड़ा। ये अपनी वीरता के साथ हठ के लिए भी प्रसिद्ध हैं।


राजा मानसिंह-ये आमेर के शासक भारमल के पोले व भगवंत दास के पुत्र थे। मानसिंह ने 1589 से 1614 तक मुगल साम्राज्य की असाधारण सेवाएँ की और आमेर राज्य को राजनैतिक और आर्थिक दृष्टि से उन्नति के शिखर पर पहुंचाया।


सवाई जयसिंह -सवाई जयसिंह 1700 ई. में आमेर के शासक बने। मुगल बादशाहों ने मराठों का दमन करने के लिए जयसिंह को मालवा का सूबेदार बनाया। उसने मराठों के विरुद्ध तीन युद्ध लड़े, लेकिन वह एकमात्र पिलसुर का युद्ध ही जीत पाया। यह वीर पुरुष होते हुए भी एक अच्छे ज्योतिष, वास्तुकार, इतिहासकार व वैज्ञानिक भी थे।


मीराबाई -ये मेवाड़ के महाराणा उदयसिंह के छोटे भाई भोजराज की पत्नी तथा मेड़ता के राणा रतनसिंह की पुत्री थी। मीरा बचपन से ही कृष्णभक्त थी। पति की मृत्यु के बाद मीरा ने सारा जीवन भक्ति में लगा दिया। इनके पद साहित्य की अमूल्य निधि हैं।


दुर्गादास-ये मेवाड़ के महाराणा जसवंत सिंह के दरबार में रहते थे। इनके पिता का नाम आसकरण जी था। दुर्गादास बड़े वीर व साहसी पुरुष थे। औरंगजेब ने राजकुमार अजीतसिंह को मारने का प्रयास किया, लेकिन इन्होंने उन्हें बचाए रखा और एक दिन मारवाड़ की गद्दी पर बैठाया। दुर्गादास बाद में मारवाड़ से निकाल दिए गए, तो इन्होंने उदयपुर जाना उचित समझा। यहाँ इन्हें राणा ने जागीर दी।


यह भी पढ़ें:-


कवि पृथ्वीराज- ये अकबर के दरबार में रहते थे। जब राणा प्रताप ने भावावेश में आकर अकबर की अधीनता स्वीकार करते पत्र लिखा, तो इन्होंने कह दिया कि यह पत्र प्रताप का नहीं हो सकता। जब अकबर ने कहा कि राणा से पत्र लिखकर उनका मानस पूछ लो, तो इन्होंने प्रताप को ऐसा पत्र लिखा, जिसे पढ़कर प्रताप का स्वाभिमान दुबारा जाग गया।


सागरमल गोपा- ये जैसलमेर के थे। इन्होंने जैसलमेर की जनता को सामन्ती निरंकुश शासन के विरुद्ध जाग्रत करने का प्रयास किया, तो महारावल ने इन्हें जैसलमेर से निकलने का आदेश दिया। 3 अप्रैल, 1946 को इनके शरीर पर केरोसीन का तेल डालकर आग लगवा दी गई।


विधाधर- यह सवाई जयसिंह के समकालीन शिल्पकार थे। 1927 में जब जयपुर नगर की स्थापना की गई, तो इन्होंने ही जयपुर का नक्शा तैयार किया था।


कृष्णा कुमारी- कृष्णा कुमारी मेवाड़ की राजकुमारी थी। इनकी सगाई राजा मानसिंह (जोधपुर) के साथ हुई थी, परंतु जयपुर के राजा जगतसिंह कृष्णा कुमारी से विवाह करना चाहते थे। परबतसर केनिकट जयपुर व जोधपुर के बीच भीषण युद्ध हुआ। अंत में जोधपुर के राजा मानसिंह की पराजय हुई। राजकुमारी ने जगतसिंह के साथ विवाह करने से मना कर दिया तथा विषपान करके अपनी जीवन लीला समाप्त कर ली।


मेजर शैतान सिंह- इनका जन्म । दिसंबर 1924 को जोधपुर जिले के ग्राम बाणासर में हेमसिंह भाटी के घर हुआ था। मेजर स्नातक की उपाधि प्राप्त कर सन् 1947 में सेना में भर्ती हुए। सन् 1962 में चीन के भारत पर आक्रमण के समय 21 नवंबर को उसने चीनियों से घमासान युद्ध करते हुए अंत में वीरगति को प्राप्त हुए। वर्ष 1962 में सर्वोच्च सैनिक सम्मान इन्हें मरणोपरांत प्रदान किया था।


अमृता देवी -जोधपुर जिला के ग्राम खेजड़ली की वीरांगना देवी ने भाद्रपद शुक्ला दशमी मंगलवार विक्रम संवत् 1787 के दिन खेजड़ी वृक्षों को कटने से रोकने के लिए अपनी जान की परवाह न करने हुए 363 विश्नोइयों का नेतृत्व करते हुए शहीद हो गयी। ऐसा उदाहरण विश्व में अन्यत्र देखने को नहीं मिलता, आज जो 'चिपको आंदोलन' चल रहा है उसकी प्रणेता अमृता देव ही हैं।


बीरबल खीचड़- ये लोहावाट निवासी श्री बिड़दाराम खीचड़ (विश्नोई) के वीर पुत्र थे। इन्होंने अपनी नश्वर देह की परवाह न करते हुए 17 दिसंबर, 1977 को चिंकारा हिरण की रक्षा के लिए अपने प्राणों का बलिदान कर दिया। यह विश्व का पहला उदाहरण है, जब किसी व्यक्ति ने मूक प्राणी की रक्षा के लिए अपने अनमोल जीवन की बलि दी हो।


आचार्य तुलसी -बीसवीं शताब्दी के आध्यात्मिक परिदृश्य पर प्रमुखता से उभरने वाले नामों में प्रमुख नाम है-अणुव्रत अनुशास्ता गणाधिपति तुलसी का। अपने त्याग और तपोबल के द्वारा राष्ट्र की अस्मिता को हर कीमत पर बचाए रखना इनका संकल्प था। इस दृष्टि से राष्ट्र के अहिंसक और नैतिक चरित्र के निर्माण के लिए 2 मार्च, 1949 को उन्होंने अणुव्रत आंदोलन का प्रवर्तन किया। आचार्य तुलसी ने अपना सारा जीवन (1914-1997) सत्य और अहिंसा के संदेश के साथ मानव मात्र के कल्याण में लगा दिया। अनगिनत अलंकरणों व उपाधियों से विभूषित यह महामानव हमें खुद से वंचित करते हुए 23 जून, 1997 को परलोक गमन कर गया।


राजस्थान के प्रमुख दुर्ग व निर्माता


दुर्ग/किला

स्थल

निर्माता

चित्तौड़ का किला

चित्तौड़गढ़

चित्रांगद

मेहरानगढ़

चिड़ियाटूंक (जोधपुर)

राव जोधा

जूनागढ़

बीकानेर

राजा रायसिंह

रणथम्भौर का दुर्ग

सवाई माधोपुर

अजमेर के चौहान

कुम्भलगढ़ का दुर्ग

उदयपुर

महाराणा कुम्भा

अचलगढ़ का दुर्ग

आबू (सिरोही)

महाराणा कुम्भा

तारागढ़

बूंदी

रावदेव हाड़ा

अकबर का किला

अजमेर

अकबर

सिवागा दुर्ग

सिवाणा (बाड़मेर)

वीरनारायण पंवार

जालौर दुर्ग

जालौर

परमार वंश

लोहागढ़ दुर्ग

भरतपुर

सूजरमल जाट

तिमनगढ़

करौली

तिमनपाल

डीग का किला

भरतपुर

राजा बदनसिंह

सोजत का दुर्ग

जोधपुर

राव मालदेव

भटनेर दुर्ग

हनुमानगढ़

भूपत भाटी

अजयमेरु

अजमेर

राजा अजयराज

माधोराजपुरा

माधोराजपुरा (जयपुर)

सवाई माधोसिंह

कोटागढ़

कोटा

जैत्रसिंह

दौसा का दुर्ग

दौसा

बड़गूजर

राजगढ़

राजगढ़ (अलवर)

प्रतापसिंह

माण्डलगढ

माण्डलगढ

चानणा गुर्जर

सोनार किला

जैसलमेर

जैसल भाटी

किलोण

बाड़मेर

राव भीमोजी

गागरोण

गागरोण (झालावाड़)

परमार राजपूत

नाहरगढ़

जयपुर

सवाई जयसिंह

आमेर का किला

जयपुर

राजा धोलाराय

जयगढ़

जयपुर

जयपुर


राजस्थान के मुख्य महल


महल

स्थल

हवा महल

जयपुर (महाराजा प्रतापसिंह)

शीश महल

आमेर

नारायण निवास

जयपुर (नारायण सिंह)

मुबारक महल

जयपुर (महाराजा माधोसिंह)

रामनिवास बाग पैलेस

जयपुर (महाराजा रामसिंह)

मोती डूंगरी महल

जयपुर (मोतीसिंह जी)

सिसोदिया रानी का बाग महल

जयपुर

दीवान-ए-आम

जयपुर

दीवान-ए-खास

जयपुर

सिटी पैलेस-चंद्रमहल

जयपुर (सवाई जयसिंह)

जगमंदिर महल

उदयपुर

जगनिवास महल

उदयपुर

खुश महल

उदयपुर (राणा सज्जनसिंह)

जूना महल

डूंगरपुर

फूल महल

उदयपुर (राणा अभयसिंह)

राणा कुम्भा महल

चित्तौड़गढ़

विनय विलास

अलवर

सरिस्का पैलेस

सरिस्का (अलवर)

सिटी पैलेस

अलवर

विजय मंदिर पैलेस

अलवर

खेतड़ी महल

खेतड़ी

लालगढ़ महल

बीकानेर

अनूप महल

बीकानेर (महाराजा अनूप सिंह)

बादल महल

जैसलमेर

जवाहर महल

जैसलमेर

उम्मेद भवन पैलेस

जोधपुर (शेरशाह सूरी)

गोपाल भवन महल

जोधपुर

गोपाल भवन महल

डीग (भरतपुर)


उम्मीद है यह 'राजस्थान का इतिहास' सामान्य ज्ञान लेख आपको पसंद आया होगा। इस आर्टिकल से आपको राजस्थान gk, राजस्थान GK इन हिंदी, Rajasthan General Knowledge in Hindi, Rajasthan Samanya Gyan, राजस्थान सामान्य ज्ञान हिंदी, राजस्थान हिस्ट्री GK,  इत्यादि की जानकारी मिलेगी। यदि आपके पास कोई प्रश्न या सुझाव है तो नीचे कमेंट बॉक्स में पूछ सकते है।


यह भी पढ़ें:-

Post a Comment

0 Comments
Post a Comment (0)
To Top