राजस्थान के प्रमुख कवि एवं गद्यकार | Rajasthan Major Poet and Prosaist GK in Hindi

Juhi
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राजस्थान के प्रमुख कवि एवं गद्यकार | Rajasthan Major Poet and Prosaist GK in Hindi

नमस्कार दोस्तों, Gyani Guru ब्लॉग में आपका स्वागत है। इस आर्टिकल में राजस्थान के प्रमुख कवि एवं गद्यकार से संबंधित सामान्य ज्ञान (Rajasthani Poet GK, Rajasthani Prosaist GK) दिया गया है। इस आर्टिकल में राजस्थानी कवि तथा राजस्थानी गद्यकार से संबंधित जानकारी का समावेश है जो अक्सर परीक्षा में पूछे जाते है। यह लेख राजस्थान पुलिस, पटवारी, राजस्थान प्रशासनिक सेवा, बिजली विभाग इत्यादि प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए महत्वपूर्ण है।


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राजस्थान के प्रमुख कवि एवं गद्यकार | Rajasthan Major Poet and Prosaist GK in Hindi


राजस्थान के प्रमुख कवि


चंदबरदायी- राजस्थानी के शीर्षस्थ, विख्यात कवि, हिंदी के आदि कवि के रूप में प्रतिष्ठित। 'पृथ्वीराज रासो' नामक हिंदी और राजस्थानी के प्रसिद्ध महाकाव्य के रचयिता के रूप में प्रसिद्ध। यद्यपि इनके बारे में सुपुष्ट प्रामाणिक जानकारी अपर्याप्त है फिर भी चंदबरदायी और उनके महाकाव्य 'पृथ्वीराज रासो' की जितनी विवादास्पद चर्चा हिंदी और राजस्थानी साहित्य में हुई है- कदाचित् किसी और ग्रंथ की नहीं हुई।


चंदरबरदायी भट्ट जाति के चारण कवि थे, परंपरानुसार पृथ्वीराज के समकालीन, उनके मित्र एवं राजकवि माने जाते हैं। परंपरानुसार ही ये पृथ्वीराज के साथ युद्ध में भी लड़े थे। और इन्हीं के प्रसिद्ध दोहे 'चार बाँस चौबीस गज' के अनुमान से पृथ्वीराज ने शब्द बेधी बाण से मोहम्मद गोरी को मारा था।


चंदरबरदायी अनूठी काव्य-प्रतिभा, विद्वत्ता, भाषा-ज्ञान एवं छंदशास्त्र के प्रकांड पांडित्य से विभूषित कवि थे-साहस, शौर्य, वीरता, दर्प एवं सच्ची-निश्छल मैत्री इनके विलक्षण वैयक्तिक गुण थे। 'पृथ्वीराज रासो' इनकी अमर रचना है, जिसमें वीर रस की अद्भुत व्यंजना, वीर और शृंगार रस का समंजित उन्मेष, विविध छंदों की भावानुकूल रचना, भाषा और कल्पना वैभव की अनूठी झंकृतियाँ, चमत्कृत कर देने वाली वर्णन बहुलता, अपभ्रंशकालीन काव्य रूढ़ियों तथा कथानक रूढ़ियों का मनोहर समावेश पाठक को चमत्कृत कर देते हैं। रामों के अनुसार इनका जन्म स्थल लाहौर माना जाता है पर इनका अधिकांश जीवन निश्चय ही राजस्थान में व्यतीत हुआ है।


जयानक-12वीं सदी में रचित 'पृथ्वीराज विजय' नामक संस्कृत अंग के रचयिता। इनका 'पृथ्वीराज विजय' 'पृथ्वीराज रासो' की तुलना में ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से अधिक महत्वपूर्ण एवं प्रामाणिक है। 'पृथ्वीराज विजय' में अजमेर के विकास एवं परिवेश के बारे में प्रामाणिक जानकारी मिलती है।


श्रीधर- इनके जन्मस्थल, जन्मतिथि की प्रामाणिक जानकारी का अभाव है। अतः साक्ष्य एवं बहिः साक्ष्य के आधार पर इनका सं. 1454 में विद्यमान होना सिद्ध होता है। वे राठौड़ नरेश रणमल्ल के राज्याश्चित कवि थे। श्रीधर-रचित रणमल्ल छंद' अन्य रासो ग्रंथों की तुलना में इतिहास तत्व की दृष्टि से अधिक महत्वपूर्ण एवं प्रामाणिक है। इनकी तीन रचनाएँ मानी जाती हैं- रणमल्ल छंद, सप्तशती या साहसिक छंद एवं कवित्त भागवत। रणमल्ल छंद के प्रारंभ में रचित 11 आर्या छन्दों से इनका संस्कृतज्ञ होना भी सिद्ध है। अरबी-फारसी शब्दों का भी इनके काव्य में अच्छा प्रयोग हुआ है। रणमल्ल छंद' लघु किंतु प्रभावपूर्ण एवं उत्कृष्ट काव्य है- ओजस्वी वर्णन, ऐतिहासिक महत्ता, भावानुकूल भाषा एवं जीवंत वर्णनों का इसमें अनुपम उत्कर्ष है। इतिहास, काव्य-सौष्ठव, भाषा एवं छंद शास्त्र सभी दृष्टियों से यह काव्य उल्लेखनीय है।


नरपति नाल्ह-'बीसलदेव रासो' के रचयिता महाकवि नरपति नाल्ह का व्यक्तित्व एवं कृतित्व भी इतिहास-सम्मत प्रामाणिक जानकारी की कमी के कारण पर्याप्त विवादास्पद रहा है। डॉ. उदयनारायण तिवारी ने इन्हें साधारण कवि कहा है और उसके काव्य को–'सुने-सुनाये आख्यान पर की गई बेतुकी तुकबंदी'। मोतीलाल मेनारिया नरपति नाल्ह को सोलहवीं शताब्दी के गुजराती कवि नरपति से अभिन्न मानते हैं- अपनी धारणा के प्रमाणस्वरूप इन दोनों के काव्य में भाव और भाषा की समानता भी दिखाई है। लेकिन वस्तुतः नाम और कुछ भाव-साम्य के आधार पर दोनों को अभिन्न मानना कदाचित् संगत न होगा - गुजराती कवि नरपति और नरपति नाल्ह की रचना में वैषम्य के भी पर्याप्त, पुष्ट आधार हैं। बीसलदेव रासो की भाषा-संरचना में तद्भव एवं देशी शब्दों की बहुलता है, जबकि गुजराती कवि नरपति में संस्कृत की ओर झुकाव स्पष्ट है।

वास्तव में 'बीसलदेव रासो' नामक सरस प्रेम-काव्य के रचयिता नरपति नाल्ह एक प्रतिभायुक्त उत्कृष्ट कवि हैं और उनके काव्य की सहज मधुरता एवं काव्य-सौंदर्य पाठक को भावाभिभूत कर देते हैं। राजस्थानी जन जीवन एवं कथानक रूढ़ियों का भी इसमें अच्छा, सजीव चित्रण है।


बारहट ईसरदास-संवत् 1565 में जन्म-जोधपुर राज्य के भद्रेस नामक गाँव के एक चारण-परिवार में। 14 वर्ष की आयु में इनके माता-पिता और 21 वर्ष की आयु में पत्नी का निधन। संसार से मन विरक्त। परवी जीवन जामनगर के शासक के सान्निध्य में, दूसरा विवाह भी किया पर मन फिर भी भक्ति रस और स्वाध्याय और काव्य-रचना में लीन। 'हालाँ झालां री कुंडलिया' वीर रस की इनकी प्रमुख ऐतिहासिक काव्यकृति है, शेष सभी रचनाएँ आध्यात्मिक एवं शांतरस प्रधान है-हरिरस, गुणनिधांततः, गुण भागवत हंस, गरुण पुराण, गुण आगम, गुण वैराट, गुण रासलीला, गुण छभा प्रव, देवियाण आदि। 40 वर्षों तक जामनगर रहने के बाद पुनः अपनी मातृभूमि भड्रेस लौटे-वहीं 80 वर्ष की आयु में निधन। इस तक बारहट ईसरदास वीर रस और शांत रस के भावरण एवं उत्कृष्ट कवि है।


पृथ्वीराज राठौड़ (पीचल)- जन्म संवत् 1600कानेर में, निधन से 1656 मथुरा में। बीकानेर नरेश रायसिंह के अनुज, अकबर के दरबार के देदीप्यमान रत्न थे। इनकी पत्नी चंपा देवी परम सुंदरी एवं कला मर्मज्ञ थी। रणकुशल योद्धा, साहसी, तेजानी विलासमय सामंती परिवेश में रहते हुए भी मातृभूमि के प्रति सदैव कर्तव्यनिष्ठ, स्वाभिमानी और जनसामान्य से जुड़े हुए महाकवि पृथ्वीराज राजस्थानी के शीर्षस्य एवं सर्वश्रेष्ठ कवियों में अपगण है। इन्होंने राजसी भोग-विलास और माटी से रचे-बसे लोकमानस दोनों को एक साथ साधा। वीर रस, शृंगार और भक्ति तीनों की त्रिवेणी इनके काव्य में प्रवाहित हुई है।

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'बेलि क्रिसन रुकमणी री' महाकवि पृथ्वीराज का ही नहीं, राजस्थानी का भी सर्वोत्कृष्ट काव्य है। नाभादास ने इनकी गणना 'भक्तमाल' से की है, दुरसा आढ़ा ने 'बेलि' को 'पाँचवाँ वेद' कहा है, लोकश्रुति ने इस भक्त कवि की मृत्यु के समय सफेद कौवे के आगमन की कथा पढ़कर इन्हें सम्मान दिया है। वस्तुतः बेलि' एक उत्कृष्ट श्रृंगार-काव्य है जिसमें वयः संधि नखशिख वर्णन, संयोग शृंगार की उद्दाम छवियाँ एवं षड्ऋतु वर्णन की रमणीय रस-व्यंजना अभिव्यक्त हुई है। साथ ही रुकमणी-हरण प्रसंग और युद्ध-वर्णन में वीर रस की भी अनुपम व्यंजना है। शृंगार, वीर एवं भक्ति की इस समंजित काव्य-धारा में मध्यकालीन काव्य चेतना का सांगोपांग तथा प्रतिनिधि आदर्श लक्षित होता है। वे संस्कृत, डिंगल, पिंगल काव्यशास्त्र, भारतीय दर्शन, संगीत, ज्योतिष एवं युद्धकला में पारंगत कलाकार थे, जन-साधारण में अत्यंत लोकप्रिय। डॉ. तेस्सितोरी ने इन्हें डिंगल का 'होरेस' कहा है और कर्नल टॉड ने इनके काव्य में 'दस सहस्त्र घोड़ो का बल' मानकर इनके तेजस्वी व्यक्तित्व और ओजपूर्ण कविता को गौरव प्रदान किया है। इनके अन्य काव्य हैं-


ठाकुर जी रा दूहा (दसरथ रावडत, बसदेव रावडत) गंगा जी रा दूहा (गंगालहरी), दसम अगवत रा दूहा, फुटकर पद, गीत आदि। कर्नल टॉड ने इनके लिए कहा है-"पृथ्वीराज अपने समय के क्षत्रियों में श्रेष्ठ वीर थे और पश्चिमी ट्यूडर राजपुत्रों की तरह अपनी ओजस्विनी कविता से मानव-हृदय को स्फूर्त एवं अनुप्रमाणित कर सकते थे।…"


दुरसा आढा -जन्म संवत् 1592 और मृत्यु सं. 1712 में। पिता-मेहाजी, जन्मस्थल-मारवाड़ के सांचौर परगने का 'आढा'' गाँव। एक साधारण चारण-परिवार में जन्म लेकर भी एक कलाकार के रूप में अपार सम्मान, समृद्धि और यश पाया। श्यामलदास जी के 'वीर विनोद' के उल्लेखानुसार इन्हें अकबर ने छह करोड़ रुपए दिए थे। बीकानेर-नरेश रायसिंह, जयपुर-नरेश मानसिंह और सिरोही के राव सुरताण ने भी इन्हें अपार सम्मान और 'क्रीड-पसाव' प्रदान किए थे। अकबर के दरबार में इनका बहुत सम्मान था-यद्यपि अकबर के इतिहास-लेखकों ने इनका उल्लेख नहीं किया है।


इन्होंने 'विरुद्ध छहत्तरी' में अकबर को 'अध अवतार', अधर्मी, कुटिल, अनीत कहकर भी संबोधित किया है और राणा प्रताप के शौर्य गौरव का गुणगान। संभवतः प्रारंभ में ये अकबर की ओर आकृष्ट हुए होंगे- फिर अकबर की आक्रामक नीति विरोध में होते गए। "दुरसा जी हिंदू धर्म, हिंदू जाति और हिंदू संस्कृति के अनन्य उपासक थे। अपनी कविता में उनने कालीन हिंदू समाज की विपन्न अवस्था और अकया की कूटनीति का बड़ा ही सजीव, वीर-दर्पपूर्ण, और चुभता हुआ वर्णन किया है। इसलिए उन्होंने राणा प्रताप, राव चंद्रसेन और राव सुरताण आदि के देशप्रेम का भावाभिभूत यशोगान किया है। इनकी आठ रचनाऍं जिनमें 'विरुद्ध छहतरी' सर्वाधिक प्रामाणिक एवं प्रसिद्ध है। अन्य रचनाएँ हैं- किरतार बावनी, राव श्री सुरताण रा कवित्त, दोहा सोलंकी वीरमदेव जी रा, झूलणा रावत मेघाटा, जीत राजि श्री रोहितास जी रा, झूल्णा राव अमरसिंघ जी गजसिंघेत रा और श्री कुमार अज्जाजी की भूचर मोटी नी गजगत। डिंगल के शीर्षस्थ, श्रेष्ठ कवियों में महत्वपूर्ण स्थान है दुरसा आढ़ा का। एक सामंती परिवेश का कवि होते हुए भी उन्होंने जनमानस को देश प्रेम और राष्ट्रीय गौरव की भावना से सशक्त एवं मर्मस्पशी संग से अनुप्राणित किया है।


पद्मनाभ- जालौर के चौहान अखैराज के आश्रित वीसनगरा नागर ब्राह्मण ने सं. 1512 में 'कान्हड़दे-प्रबंध' की रचना की थी- जिसमें कानडदे और अलाउद्दीन के युद्धों का प्रभावपूर्ण वर्णन है- चौपाई, दोहों, सवैयों आदि में रचित इस काव्य में चार खंड और दो हजार पंक्तियाँ हैं। बीररस प्रधान इस रचना को राजस्थानी महाकाव्य माना गया है और पृथ्वीराज रासो से तुलनीय Epic of glorious Age' भी। साहित्यिक सौष्ठव के साथ इस काव्य का इतिहास और भाषा-विकास की दृष्टि से भी अपूर्व महत्व है।


गाडण सिवदास- 'अचलदास खीची री वचनिका' के यशस्वी राजस्थानी कवि-रचनाकाल सं. 1500 के आस-पास। यह तुकांत गद्य और पद्य मिश्रित 120 छंदों की लघु किंतु उत्कृष्ट एवं महत्वपूर्ण काव्य-रचना है। छंदों में दोहा, सोरठा, छप्पय और कुंडलिया का प्रयोग। 'वचनिका' वीर रस प्रधान एवं गौणतः करुण रस से समंजित काव्य है और यही चारण सिवदास की अपार ख्याति एवं लोकप्रियता का आधार।


सायांजी झूला - इनका जन्म सं. 1632, मृत्यु सं. 1703 है। ईडर के राव वीरमदेव जी और कल्याणमल जी इनके आश्रयदाता रहे। श्रीकृष्ण के परम् भक्त सायांजी की प्रसिद्ध रचनाएँ हैं-नागदमण, रुकमणी हरण। संगीत, ज्योतिष और शकुनशास्त्र में पारंगत इस भक्तकवि की भक्ति काव्य में शीर्षस्थ ख्याति है।


जान कवि - राजस्थानी के लोकप्रिय कवि, श्री अगर चंद नाहटा द्वारा इन्हें प्रकाश में लाया गया। जन्म सीकर अंचल में फतेहपुर के कायमखानी मुस्लिम परिवार में। इनके 73 ग्रंथ माने जाते हैं- रचनाकाल. 1671 से 1721 तक। 'पंचतंत्र के आधार पर रचित इनका काव्य 'बुधि-सागर' प्रसिद्ध है। जीवन के लोकानुभवों एवं संवेदनाओं को इन्होंने सहज-सरल-सुबोध अभिव्यक्ति प्रदान की है। मीराबाई - मेड़ता के राव दूदा के बेटे रत्नसिंह की पुत्री, राणा सांगा के कुंवर भोजराज से विवाहित राजस्थान की विश्ववंद्या कवयित्री, हिंदी साहित्य के भक्तिकाल में कृष्ण-भक्त कवियों में मीरा का स्थान बहुत उच्च माना गया है। बचपन से ही सांवरे सलोने कृष्ण की भक्ति मलीन मीरा माधुर्य भाव या कांत भाव की भक्ति की उत्कृष्ट कवियत्री - मीरा ने पिता को कविता समझकर रचा ही नहीं उनकी उच्छल भक्ति भावना स्वतः सरल-सुबोध एवं लोक संवेध रागिनियों में लगी है। 'प्रेम की पीर' या विहानुभूति का दरद-दीवानी मीरा ने मर्मस्पर्शी चित्रण किया है। प्रस्तुत है मीरा के लोकमानस में रचे-बसे काव्य के कुछ निदर्शन-

• "पायो जो मैंने राम रतन धन पायो

वस्तु अमोलक दी मेरे सतगुरु करि किरिपा अपनायो।"

• 'सखी म्हारी नींद नसाणी हो'

• "मेरे सिर मोर मुकुट मेरो पति सोई

अंसुवन जल सींचि-सींचि प्रेम-बेलि बोई"

मीरा की ‘पदावली' भारतीय साहित्य का गौरवग्रंथ है। संगीत की लय में ढले मीरा के पदों में अन्य संतों के समान घुमक्कड़ी वृत्ति से ब्रज, गुजराती आदि भाषाओं का सहज मिश्रण मिलता है।

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दादूदयाल- राजस्थानी, हिन्दी के प्रसिद्ध संत कवि। दादू पंथ के प्रवर्तक। गुजरातवासी होकर भी जीवन-यापन राजस्थान में। इनकी रचनाएँ इनके शिष्यों ने दो पुस्तकों में संगृहीत की हैं। संत-काव्य की समस्त प्रवृत्तियाँ इनके काव्य में परिलक्षित होती हैं।


मानसिंह- रचनाकाल सं. 1634-40 है। दरबारी कवि होने से इनके काव्य में रीतिकालीन प्रवृत्तियों का वैशिष्ट्य स्पष्टतः लक्षित होता है। इनके प्रमुख ग्रंथ 'राजविलास' में मेवाड़-नरेश राजसिंह की काव्यमय प्रशस्ति है। कवि ने डिंगल की परंपरागत काव्य रूढ़ियों का अच्छा प्रयोग किया है।


करणीदान - जन्म मेवाड़ के सूलवाड़ा गाँव में। ये स्वयं परम शूरवीर थे और महाराजा अभयसिंह के साथ अहमदाबाद के युद्ध में भी दे भागी रहे। इसका प्रसिद्ध काम है 'सूरज प्रकाश' जिसमें सात हजार पांच सौ छोद है। यह डिंगल के उत्कृष् कामों में अग्रगण्य रचना है।


कल्लोल- 'ढोला-मारु रा दूहा' नामक प्रसिद्ध एवं लोकप्रिय लोकगाथा के रचयिता। कुशल लाभ-रचित 'ढोला मारवण री चोपाई' के एक दोहे में ढोला-मारू रा दूहा' के रचनाकार के रूप में इनका उल्लेख मिलता है। लोक परंपरा और लोक संस्कृति के जीवन स्वाभाविक चित्रों से संकलित इनका काव्य प्रेमपरक लोक साहित्य का आदर्श प्रतिमान है।


कुशल लाभ -राजस्थानी साहित्य के विख्यात जैन कवि एवं आचार्य कुशल लाभ का जन्म संवत् अनुमानतः 1560 के लगभग है। इस मारवाड़ी कवि के 12 ग्रंथों का उल्लेख मिलता है।  'ढोला-मारवण री चौपाई' और 'माधवानल चौपाई प्रमुख सर्वश्रेष्ठ काब-प्रय है। डोला मारु के विकीर्ण दोहों को एकत्र कर कवि ने उसमें अपनी चौपाइयाँ मिलाकर उसे पूर्ण एवं प्रौद्ध रूप प्रदान किया।


गणपति- 'माधवानल काम केदला' नामक लोकप्रिय प्रसिद्ध ऐतिहासिक प्रबंध-काव्यों के रचनाकार। प्रबंध काव्य की रचना कायस्य कवि गणपति ने सं. 15 की। लगभग 2500 दोहों में रचित यह काव्य महाकाव्य-ौली में लिखा गया है और लोक साहित्य के उत्कृष्ट प्रथों में इसकी गाना होती है।


रतना खाती-'नरसी रो माहेरौ' नामक लोक-काव्य रचयिता। इसमें सुप्रसिद्ध भक्त कवि नरसी मेहता की पुत्री नानीबाई के भात भरने के लोकप्रचलित कथा भावप्रवण एवं सरस बनाकर कही गयी।


रतनू वीरमाण- पडोह मारवाड़ के निवासी और रतनू शाखा के चारण कवि वीरमाण मारवाड़ नरेश अभयसिंह के आश्रित कवि थे। जन्म सं. 1745, 47 वर्ष की आयु में असामयिक निधन। अपयसिंह की काव्य-मय प्रशस्ति में लिखा गया इनका 'राजरूपक' काव्य ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है।


जोधराज - वीररस के श्रेष्ठ काव्य 'हम्मीर रासो' के कवि। यह काव्य इन्होंने अपने आश्रयदाता निधराणा (अलवर) के ठिकाणेदार चंद्रभानु के आदेश की अनुपालना में लिखा और सं. 1785 में इसकी रचना संपूर्ण हुई। यह 960 पदों का ओजपूर्ण काव्य है। जोधराज गौड़ कुलोत्पन्न ब्राह्मण थे।


कविराजा बांकीदास –जन्म सं. 1828 में जोधपुर पंचपदा परगने के भांडियावास गाँव में। मृत्यु सं. 1990 में। आसिया कुल में उत्पन्न प्रतिभा सम्पन्न चारण महाकवि बांकीदास 'कविराजा' उपाधि से विभूषित। इन्होंने कुल 26 ग्रंथों की रचना की। कवि और गद्यकारनदोनो। बांकीदासरी ख्यात' इनकी विख्यात इतिहासपरक गद्य रचना है। 'बोकीदास-ग्रंथावली' का 'नागरी प्रचारणी' द्वारा प्रकाशन। ये महाराणा मानसिंह के दरबारी कवि थे- परम स्वाभिमानी और तेजस्वी। अपने काव्य में इन्होंने अंग्रेजी अधीनता स्वीकारने वाले राजपूत राजाओं को फटकारा है। इनकी 'कुकवि बत्तीसी' नामक काव्य-रचना में डिंगल और पिंगल के विषय में यह दोहा उल्लेख्य है-

"डिंगलिया मिलियाँ करें पिंगल तणो प्रकास

संस्कृति वै कपट सज पिंगल पढियाँ पास।"


सूर्यमल्ल मिश्रण- जन्म मिश्रण शाखा के प्रतिष्ठित चारणनकुल में संवत् 1872 में बूंदी में। निधन सं. 1985 में। बूंदी राजवंश केनकृपापात्र महाकवि। “उन्हें स्वतंत्र प्रकृति के, अक्खड़ और पियक्कड़, स्पष्टभाषी और निडर, स्वभावसिद्ध कवि और प्रकांड पंडित के रूप में याद किया जाता है। वे संगीत मर्मज्ञ और लोकोत्तर प्रतिभा के अधिकारी। चारणोचित स्वाभिमान और स्वातंत्र्य प्रेम उनकी नस-नस में भरा था।'


सूर्यमल्ल षटभाषाज्ञानी, व्याकरण, दर्शन, ज्योतिष आदि शास्त्रों में निष्णात थे। गहन, गंभीर, मार्मिक भावानुभूति तथा प्रखर-प्रांजल अभिव्यक्ति का उत्कृष्ट निदर्शन है महाकवि सूर्यमल्ल का काव्य। 'वंश भास्कर' (सं 1897) इनकी प्रसिद्ध इतिहासपरक रचना है। 'वीर सतसई' इनका दूसरा विख्यात काव्य है जिसमें वीर रस की अतुलनीय व्यंजना है-ऐसी ओजस्वी वाग्धारा कि इसके कवि को 'वीर रसावतार' तक कहा गया। ये चारणों के सर्वोत्कृष्ट महाकवि के रूप में प्रतिष्ठित हैं-आधुनिक राजस्थानी काव्य के नवजागरण के पुरोधा कवि।


कृपाराम -'राजिया रा सोरठा' के यशस्वी कवि-जिसमें राजिया को संबोधित भावप्रवण एवं टकसाली सोरठों की रचना है। इनके 'सोरठे' विद्वसमाज और जन सामान्य में समानतः आवृत एवं प्रिय हैं। जोधपुर राज्य के खराड़ी गांव के निवासी, खिड़िया शाखा के चारण कवि ये सीकर के राव राजा लक्ष्मणसिंह के आश्रित कवि रहे।


कन्हैयालाल सेठिया- राजस्थानी और हिंदी के आधुनिक कवि। 'पातल और पीथल' इनकी अत्यंत प्रसिद्ध एवं लोकप्रिय है।


मेघराज मुकुल - समसामयिक काल के प्रसिद्ध राजस्थानी कवि-गीतकार। इनकी 'सेनानी' रचना अत्यधिक लोकप्रिय है।


मनोहर वर्मा- आधुनिक राजस्थानी के प्रसिद्ध कवि एवं गयकार। बाल-साहित्य-रचना में अग्रणी रचनाकार।


मणि मधुकर -राजस्थानी और हिंदी के समसामयिक रचनाकार। 'पगफैरों' काव्य पर साहित्य पुरस्कार से सम्मानित।आधुनिक काल के अन्य उल्लेख्य कवियों की चर्चा आधुनिक राजस्थानी काव्य के प्रकरण में द्रष्टव्य है।

राजस्थान के प्रमुख गद्यकार


प्राचीन/मध्यकालीन


सिवदास गाडण -'अचलदास खींची वचनिका' के रचनाकार। वचनिका में गद्य और पद्य दोनों के बंध होते हैं इसलिए सिवदास की गणना राजस्थान के प्राचीनतम गयकारों में की जा सकती है।


बाँकीदास- 'बाकीदासरी ख्यात' नामक राजस्थानी गध की प्रसिद्ध ऐतिहासिक गद्य-रचना के यशस्वी रचनाकार इनकी ख्यात' में इतिहास सम्मति प्रामाणिक संदर्भो का अतिशय महत्व है। 


दयालदास- 'दयालदास ख्यात' के विख्यात रचनाकार। 'दयालदास री ख्यात' में बीकानेर के राजाओं का प्रामाणिक और इतिहास सम्मत वर्णन है। चारण जाति के दयालदास बीकानेर राजवंश के कृपापात्र थे। राजस्थान के इतिहास और प्राचीन साहित्य के प्रामाणिक संदर्भो की दृष्टि से उनकी 'ख्यात' का अप्रतिम महत्व है।


मुहणोत नैणसी - जन्म सं. 1667 में। मारवाड़ नरेश जसवंत सिंह के दीवान, इन्होंने ऐतिहासिक सामग्री का विश्वसनीय संग्रह करके 'नैणसी री ख्यात' की रचना की थी, इनकी ख्यात भी ऐतिहासिक दृष्टि से अतिशय प्रामाणिक एवं महत्वपूर्ण है। मुंशी देवीप्रसाद ने नैणसी को 'राजपूताने का अबुल फजल' कहा है। इनकी 'ख्यात' में मारवाड़ी में राजपूत राजाओं और राज्यों का विशाल ऐतिहासिक वृत्त प्रस्तुत किया गया है। नैणसी स्वाभिमानी, स्पष्टवक्ता, निर्भीक, साहसी तथा कला एवं शास्त्रों में निष्णात विद्वान रचनाकार थे।


आधुनिक गद्यकार


अन्नाराम सुदामा - गद्य की सभी विधाओं-कहानी, उपन्यास, व्यंग्य, नाटक, यात्रावृत्त आदि में लेखन, हास्य-व्यंग्य, काव्य 'पिरोल में कुत्ती बाई' बहु-प्रशंसित। 'मैकती काया मुलकती धरती' इनका सामाजिक उपन्यास है।


बी.एल. माली 'अशांत'– उपन्यास, कहानी, नाटक और निबंध-लेखन। 'मिनख रा खोज' बहुचर्चित उपन्यास।


गोविन्द लाल माथुर- जोधपुर निवासी नाट्यकार। एकांकी विधा के विकास में अग्रणी। एकांकी-संग्रह 'सतरंगिणी' प्रकाशित।


रामकरण आसोपा -जन्म जोधपुर अंचल के बहलू गांव में। बहुभाषाविद्, बहुश्रुत एवं इतिहासज्ञ विद्वान। राजस्थानी भाषा और साहित्य के उन्नयन और विकास में अपूर्व योगदान। जीवन के उत्तराद्ध में डिंगल का एक वृहद् कोष तैयार किया जिसमें साठ हजार शब्दों एवं लाकोक्ति-मुहावरों का संचय, 'कोष' के प्रकाशन से पूर्व ही निधन।


सूर्यकरण पारीक - जन्म सन् 1903, निधन सन् 1939 में। अपने अल्प जीवनकाल में ही राजस्थानी भाषा-साहित्य की अविस्मरणीय सेवा। 'ढोला मारू रा दूहा', 'बेलि क्रिसन रुकमणी री' और 'छंदराव जैतसी रो' का कुशल, विद्वत्तापूर्ण संपादन। मेधमाला, कानन-कुसुमांजलि, बोलवण, गद्य-गीतिका, रातरानी आदि ग्रंथों का लेखन। राजस्थानी वार्ता' और राजस्थानी लोकगीत' में संपादन एवं समीक्षा का उत्कृष्ट निदर्शन।


शिवचंद भरतिया -  जन्म 1853, निधन 1928 ई. में। आधुनिक राजस्थानी उपन्यास साहित्य के प्रवर्तक - इनके 'कनक सुंदर' को राजस्थानी का प्रथम उपन्यास माना जाता है। संस्कृत, हिन्दी, मराठी, राजस्थानी के जानकार। राजस्थानी की नौ रचनाओं के अतिरिक्त इन्होंने हिंदी में 17, मराठी में 13 और संस्कृत में 3 रचनाओं का सर्जन किया।


श्री चंद राय - जन्म 19 मार्च, 1906 को डीडवाना में। प्रमुखतः कहानी एवं लघुकथा-लेखन। राजस्थानी भाषा के उत्थान में अपूर्व योगदान।


मुरलीधर व्यास– जन्म बीकानेर में सन् 1908 में। प्रमुख ग्रंथ- घूमर, इक्के आलो, बरसगाँठ, दाढ़ी पर टैक्स, राजस्थानी कहावत आदि।


मालचंद तिवाड़ी -आठवें दशक के सक्षम कथाकार। इनके कथा साहित्य में समाजिक पुनरुत्थान का भाव और जर्जर रूढ़ियों के प्रति विद्रोह का स्वर प्रखर है। 'भोलावण' इनका प्रथम चर्चित उपन्यास।


सांवर दइया- जन्म 10 अक्टूबर, 1948 बीकानेर में। राजस्थानी कथाकारों में अग्रणी स्थान। 'असवाड़े-पसवाड़े' कहानी संग्रह चर्चित।


नृसिंह राजपुरोहित- जन्म 1924 ई. में बाड़मेर अंचल के खांडप गाँव में। राजस्थानी के प्रसिद्ध कथाकार। 'भगवान महावीर' इनका बहुप्रशंसित उपन्यास। अमर चूनडी, रातवासो, प्रभातियो तारो, आस्यां हरि मिलै आदि इनके श्रेष्ठ कहानी-संग्रह है।


श्रीलाल नथमल जोशी-  जन्म सन 1921 में बीकानेर में आधुनिक राजस्थानी कथा-साहित्य में शीर्षस्थ स्थान। आभै पटकी धोरा री धोरी, एक बीनणी दो बीन, परण्योड़ी कॅवारी उनके लोकप्रिय उपन्यास हैं, 'सबड़का' कहानी संग्रह।


डॉ. मनोहर शर्मा- जन्म सन् 1951 में। 'वरदा' पत्रिका के संपादन के जरिए राजस्थानी भाषा-साहित्य की समृद्धि में ऐतिहासिक योगदान। अरावली री आत्मा, गीत-कथा, कन्यादान, धरती माता, गाँधी गाथा, राजस्थानी वात साहित्य, नैणसी रो साको आदि उल्लेखनीय रचनाएँ।


विजयदान देथा- जन्म सन् 1926 बोरुंदा में। 'लोक-संस्कृति' का संपादन। 'रूपायन' संस्था में विषष योगदान।


नरोत्तम स्वामी -जन्म 2 जनवरी, 1905 में बीकानेर में। राजस्थान रा दूहा, ढोला मारू रा दूहा, राजिया रा दूहा आदि प्रसिद्ध रचनाओं का सम्पादन। निधन 13 अगस्त, 1981 को।


श्रीलाल मिश्र- जन्म विखाऊ में 20 अगस्त, 19101 'मास्टर जी' के नाम से अलग पहचान। विभिन्न लेख, कहानियों एवं आलोचनाओं द्वारा योगदान। 'वरदा' पत्रिका में सराहनीय सम्पादन।


यादवेन्द्र शर्मा 'चंद्र '-जन्म 15 अगस्त, 1932 को बीकानेर में। मूलतः हिंदी रचयिता। जोग-संजोग, चाँदा सेठाणी, हूँ गौरी किण पीव री आदि उल्लेखनीय उपन्यास। प्रसिद्ध कहानी संग्रह 'जमारों'।


डॉ. महेन्द्र भानावत- जन्म 11 नवंबर, 1937 को कानोड़ (उदयपुर) में। राजस्थान के थापे, अजूबा राजस्थान, मेंहदी राचणी, आदि पुरस्कृत रचनाएं।


रानी लक्ष्मी कुमारी चूंडावत-जन्म 1916 में भूतपूर्व मेवाड़ राज्य के देवगड ठिकाने में। अमोलक वातां, टाबरां री वातां, की चकवा वात आदि रचनाओं का योगदान।


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